दौड़ी ... फिसली .. धप्प्प... ! बारिश !!
डुबुक्क ! गया पैर पानी में। ऐसा वैसा पानी नहीं, सीवर के पानी में उतरा हुआ बारिश का पानी, जो अपनी औकात भूल कर फैलते फैलते पूरे मोहल्ले को ढक चुका था। वैसे ही जैसे ढक लेती हैं चींटियां हर रोशनी की संभावना पर लगते ही। बारिश सबको कुछ फुला देती है, मेरी किताब की पन्ने हो या मेरा मन। फिर भी हर छीछालेदर के बावजूद मुझे बुरी नहीं लगती बारिश। मैं पैर डुबकाती जहां गई, वहां काम बना नहीं, बारिश ! घर आई तो सारी रात बिना बिजली, पानी के मेरे साथ ऊंघा हुआ घर मुझे घूरता रहा। जुगाड़े हुए पानी की मैगी पर दिन तो कटा लेकिन शाम पेट पर भारी रही। भरी दोपहरी में मुंह अंधेरा किए कमरे से ऊब कर दरवाजे के सामने ज़मीन पर अखबार फैलाए जो बाहर देखती रही थी, सो शाम तक देखती ही रही। बस पानी की टपर- टपर हरे पत्तों पर। बीच बीच में सीलन के मारे फूल के कुप्पा हुई किताब के पन्ने सहलाए। पढ़ने का ढोंग भी कर लिया, सेल्फी में खुद को तुलना मधुबाला से कर डाली, तुम्हें याद भी किया, तुम्हें भूल भी गई। लेकिन सारी रूमानियत की बखिया उधेड़ी पेट की मरोड़ और ऐंठन ने। ...