एक क्षण मैं हूँ...दूसरे क्षण नहीं...
तारतम्य नहीं है, सुर बनता-बनता बिगड़ जाता है... कल्पना सच से मेल नहीं खाती... सच रास नहीं आता, मगर कल्पना मेरी सगी नहीं, निभाना तो सच के साथ है ! अब! सत्य शिव तो है, लेकिन क्या सुंदर है ? वस्तुतः जो सत्य है, शिव है , उसे अपना लेने के अलावा दूसरा विकल्प ही क्या है! कल्पना शुष्क सत्य को नमी देती है... रंग भरती है... माया रचती है... मोह जगाती है। 'सुंदर' कल्पना की विषय-वस्तु है। ये सत्य और कल्पना की खिटपिट में मैं इधर उधर ढुलकती बौराई सी फिरती हूं। सत्य को स्वीकार करना जस का तस, उसकी संपूर्ण रौद्रता में और उसे सुंदर की संज्ञा देना ... ये मानवता के विकास का अद्भुत उदाहरण है। मैं बीच में ही कहीं, किसी अविकसित क्षण में अटक गई हूं। बदहवास सी शक्ल लिए, आधा-अधूरा सुनती हूं और उससे भी कम कह पाती हूं।मुझ तक आता हुआ सब कुछ रास्ते में ही कहीं लिबलिबा सा होकर लोप हो जाता है। मुझे ध्यान नहीं तुम क्या कह रहे थे, मैंने यूँ ही सर हिला दिया था, मुझे याद नहीं मैं तुमसे क्या कह रही थी, कुछ कहा भी था या चुप रह गयी।मु...