दस बरस अतीत हो गए...
मैं सुस्त कदमों से चलती जा रही थी, बगैर सामने देखे। सड़क पर पेड़ों की पत्तियों से बच बचाकर जो धूप फिसल आई थी, वो तरह तरह की आकृतियां बना रही थी, मेरा ध्यान उन्ही पर था। मेरा कॉलेज बैग दोनो कंधो पर असहज सा खिंचाव बना रहा था, जिसे मैं नजरंदाज कर रही थी। मुझे लाइब्रेरी पहुंचना था, अगर आज भी घर चली गई तो ये बुक रिटर्न करना रह जाएगा। बुक इश्यू कराने और रिटर्न करने के बीच वो जो बुक पढ़ने वाला चरण होता है, वो मुश्किल से ही आता था मेरी दिनचर्या में। सारा वक्त बहसें निगल जाती! क्या नहीं हुआ और क्या नहीं होना चाहिए की बहसें !! वाहियात बहसें !! अतीत की सड़न को कुरेदती बहसें!! ... ओह! ये तो दस बरस पहले की घुटन है, अब कहां है कॉलेज! अब कहां है लाइब्रेरी! अब तो इश्यू और रिटर्न की खानापूर्ति भी गई। ये दस बरस भी तो अब अतीत हो गए। पाले के उस ओर से मुझे देख रहे हैं, जैसे किसी जाने-पहचाने अजनबी को देखा जाता है। हथेली से होकर ये... यही जो अब घटने को है... गुजरने वाला है.. इसे ही खूब जी लूंगी। लो गया ये भी!!