ढांचे, दीमक और टूटा हुआ तार...
तुमने मेरा गिटार देखा! एक तार बेतरतीब सा झूल रहा है। अद्वित ने सुर साध रखा था.... "वो ... वो... गिटार... माँ ... गिटार ..." मैंने हार कर दे दिया उसे । वो तारों पर उँगलियाँ फिराता रहा, संगीत के व्याकरण से मुक्त एक धुन सुनाई देती रही ... मुझे भली सी लगी, सो मैंने उसे करने दिया जो भी वो कर रहा था, और ध्यान किताब की ओर वापस खींच लिया। कुछ देर में मेरी किताब छीन कर कहने लगा "टूट गया... टूट गया...", उसकी नन्ही उँगली उसी तार की ओर इशारा कर रही थी... मेरे चेहरे पे हैरानी मिश्रित उदासी का भाव देखकर वो पूछता रहा, "माँ सैड हो गई?" मैं हंसकर कहती रही, "नहीं, माँ हँस रही है"। मुझे अपनी माँ का उदास चेहरा जादू से अचानक हास्य से लबडब चेहरे में बदल जाता हुआ याद आ गया... ओह! तो यही होता आ रहा है! हाँ यही तो होता आ रहा है! समय में थोड़ा आगे चलूं या थोड़ा पीछे , एक ही ढर्रे पर जीवन खुद को दोहरा रहा है। मुझसे कुछ पहले, मेरे कुछ बाद, कहीं मुझसे कुछ भाषा-संस्कृति की दूरी पर या मेरे बहुत पास... एक ही सा बीत रहा है, ढाँचे और उनको बनाए रखने की ज़िद... ज़िद में म...