दो समोसे, इक्कड-दुक्कड, खडिया और सिलेट ...
रात के डेढ़ बजे हैं, मौसम की उमस अब कम है। हवा में शीतलता आ गयी है, बाहर आम का पेड़ अब दोपहर जैसा चिढ़ा हुआ नहीं लग रहा, कुछ शांत है। मैं यहाँ बाहर मनी-प्लांट के पास बैठी हूँ, अद्वित सोया है। घर शांत है। मुझे यहाँ अच्छा लग रहा है। अब इस वक्त यहाँ बैठे कितनी ही बातें मेरे मन से होकर शून्य में खो जा रही हैं, जो मेरे मन पर कितनी भारी हैं मगर जिनका कोई औचित्य नहीं। मेरी उँगलियों के पोरों में गर्म पानी और डिटर्जेंट से होने वाली जलन, पैरों की उँगलियों में दोपहर की हड़बड़ाहट की कई ठोकरों की टीस रह-रह कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है।बोरो-प्लस की ट्यूब में अब ज़्यादा कुछ शेष नहीं है, "कहाँ लगाऊँ" का चुनाव इस वक्त थका देने वाला मालूम होता है, बस ट्यूब हाथ में लिए उसके पीछे की नोक से कलाई सहला रही हूँ जहां कल मधुमक्खी ने काटा था। क्या मैं भी जाकर सो जाऊँ? मगर उठने के साथ ही फिर वही हड़बड़ाहट, जलन, कटना, चुभना, चोटें.... इनका अंत कहाँ है? मेरी हथेलियाँ अब माँ जैसी लगने लगी हैं।माँ की नानी जैसी।माँ के जीवन पर भी तो वही जलने कटने चुभने और चोटों के निशान हैं।पहले नज़र नहीं आते थे, अब द...