वो जो तुमने नहीं सुना
कहने को कई बार कुछ नहीं होता, फिर भी मन यूं होता है कि खूब बातें करूँ, बे-सिर-पैर की बातें। बातें ऐसी जिनका कोई मतलब नहीं बनता। बातें जिनमे कथ्य तो कुछ नहीं होता लेकिन जिनके दौरान सहअस्तित्व को महसूस किया जा सकता है। ऐसी बातें जो बीत चुकने के बाद शब्द रूप में याद नहीं की जा सकतीं , स्पर्श करती हैं। वो बातें जो मैंने तुमसे कभी नहीं कहीं , या कहीं लेकिन तुम सुनते-सुनते रह गए। सोचती हूँ वो बातें अब बस ऐसे ही कह दिया करूँ, एक शून्य को लक्ष करके। मुट्ठी में मन भर बातें भीचें कब तक तुम्हारी राह देखूँ। उन हलकी-फुलकी बातों का भार ऐसा होता है जैसे बहुत व्यस्तता के बीच खूब ध्यान से हाथ में पकड़ा हुआ 10 का नोट। नोट जाने कब का खो चुका होता है, हाथ की पकड़ के बीच सिर्फ ध्यान का एक टुकड़ा अटका रह जाता है, एक 'कुछ नहीं ' को संभाले हुए। जानते हो ! ऐसे कितने 'कुछ नही' संभाले हुए फिरा करती हूं ? कैसे जानोगे ! सुनो तो न ! जानते हो ! आज कल चश्मे के बाद भी कुछ चुभता है आँखों में, नंबर फिर बढ़ गया है शायद !...