मैं एक विरोधाभास का पीछा कर रही हूँ, तुम भी एक कल्पना को गले लगाए हो !
तुम्हारे साथ कभी ऐसा हुआ है कि एक साथ कई तरह की बातें दिमाग से तेज़ी से होकर गुज़र जाएं और तुम उनकी रफ़्तार का पीछा ही न कर सको ! हफ्तों पुरानी चादर पर आलस में लिपटा धप्प से पड़ा हुआ मेरा शरीर मेरे दिमाग से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है। बाहर बारिश हो रही है। बारिश से धुले घाट की महक मेरे अंतर में भरी जा रही है , चलूं घाट की तरफ... उफ्फ... तबियत भी तो साथ नहीं देती ! मैं फिर किताब में आंखें धंसा लेती हूं , डैग्नी टैग्गार्ट* अपनी मानसिक क्षमता के समकक्ष किसी मित्र/शत्रु की अनुपलब्धता की खीझ से उठकर बाहर निकली है, वो किस ओर जाएगी ? मैं पढ़ती जा रही हूं, जैसे पढ़ते जाने से मुझे मेरी खीझ का समाधान मिल जाएगा। जैसे मेरी, डैग्नी टैग्गार्ट की और सभी तरक्की पसंद औरतों की खीझ एक ही है ! जैसे आत्म-उन्नति की इच्छा को अपराध-बोध से सान दिया जाना किसी देश-काल में सीमित नहीं है , "तुम स्वार्थी हो !" का लांछन 'सार्वभौमिक उद्घोषणा है और हर सफल स्त्री इससे गुज़र कर ही आगे बढ़ी है। मैं पढ़ती जा रही हूं ... रेडियो पर गाने की लाइन ने ध्यान खींच लिया है .....