सब प्लास्टिक में तब्दील हो गया...
एक कदम पीछे, फिर और एक, फिर और एक, जिंदगी के थपेड़ों से सहम कर, एक एक कदम पीछे लेती जा रही हूं। हर बार जब एक कांच का बर्तन फूटा, मैंने प्लास्टिक से बदल दिया। कुछ सालों के फेर में सब प्लास्टिक में तब्दील हो गया। जो सबसे ज्यादा नापसंद था, वही रोजमर्रा का जीवन बनता जा रहा है। अब भीतर बाहर सब प्लास्टिक है। न कुछ फूटता है, न कोई खनक है। अब कुछ नहीं बदलता। सालों साल की उदासीनता अपने में समेटे किफायती जीवन चल रहा है। खीझ में उठाकर पटक भी दूं, तो होता कुछ नहीं, वही खीझ फिर उठा कर दीवार पर सजाने के अलावा विकल्प क्या है ! ये हटा दो न प्लास्टिक सब, मुझे वही कांच दे दो, या संभाल लूंगी या फूट जाऊंगी, मगर प्लास्टिक के साथ नहीं जी पाऊंगी। ये मैं नहीं हूं, मुझे इसमें घुटन होती है।