घोड़ा छनक्क से टूट गया...
तुमसे कहा नहीं कुछ काफ़ी वक्त से।जब ज़्यादा कुछ घट जाता है, कहते नहीं बनता कुछ... तुमसे सुनते भी तो नहीं बनता। मैं एक यात्रा पर थी। बड़ी विचित्र यात्रा। कल्पना के घोड़े पर सवार मैं निकली तो थी की सब पा लूँगी, पा भी लिया, लेकिन पहुँची कहीं नहीं। रास्ते में हुआ ये कि घोड़ा छनक्क से टूट गया।मैं गिर पड़ती, मगर कुछ ठोस था ही नहीं जहां से गिरती, जहां पर गिरती। ये “न-गिरना” बड़ा कठिन रहा, यह “कहीं-नहीं से कहीं-नहीं” की यात्रा बड़ी लम्बी और थकान भारी रही। अब जो महसूस हो रहा है, मैं नहीं जानती वो क्या है।
अब सोच रही हूँ क्या ये यात्रा ज़रूरी थी? हाँ, थी तो। वरना इस “कुछ-नहीं” का बोध कैसे होता!
यही कहानी, जिसमें कुछ भी नहीं हुआ, यही तो सुना रही थी उस रोज़ अद्वित को। हँसता रहा वो।हँसना ही तो वाजिब है ऐसी कहानियों पर। तुम क्यों संजीदा हुए जाते हो?
ज़िंदगी! ज़िंदगी की बात कर रही हूँ! क्यों! तुम्हें क्या लगा??
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