वो जो तुमने नहीं सुना
कहने को कई बार कुछ नहीं होता, फिर भी मन यूं होता है कि खूब बातें करूँ, बे-सिर-पैर की बातें। बातें ऐसी जिनका कोई मतलब नहीं बनता। बातें जिनमे कथ्य तो कुछ नहीं होता लेकिन जिनके दौरान सहअस्तित्व को महसूस किया जा सकता है। ऐसी बातें जो बीत चुकने के बाद शब्द रूप में याद नहीं की जा सकतीं , स्पर्श करती हैं। वो बातें जो मैंने तुमसे कभी नहीं कहीं , या कहीं लेकिन तुम सुनते-सुनते रह गए। सोचती हूँ वो बातें अब बस ऐसे ही कह दिया करूँ, एक शून्य को लक्ष करके। मुट्ठी में मन भर बातें भीचें कब तक तुम्हारी राह देखूँ। उन हलकी-फुलकी बातों का भार ऐसा होता है जैसे बहुत व्यस्तता के बीच खूब ध्यान से हाथ में पकड़ा हुआ 10 का नोट। नोट जाने कब का खो चुका होता है, हाथ की पकड़ के बीच सिर्फ ध्यान का एक टुकड़ा अटका रह जाता है, एक 'कुछ नहीं ' को संभाले हुए।
जानते हो ! ऐसे कितने 'कुछ नही' संभाले हुए फिरा करती हूं ? कैसे जानोगे ! सुनो तो न !
जानते हो ! आज कल चश्मे के बाद भी कुछ चुभता है आँखों में, नंबर फिर बढ़ गया है शायद ! पहनती जो नहीं, उलझन होती है। छोटी सी नाक है न ! फिसल जाता है। बिना चश्मा पहने हुए रात को देर तक फेसबुक पर राजनीति पर राजनीति पढ़ा करती हूं। तय नहीं कर पाती, कौन ज्यादा नीचे गिर पाया है ! माँ कहने लगी रोटी बनाते हुए, "यहाँ की जड़ता कब जाएगी ! " दिल में आया, यहाँ जड़ता कहाँ है, जड़ता तो चेतन लोगों पर प्रयोग किये जाने क लिए नकारात्मक विश्लेषण भर है ! यहाँ तो कोई 'चेतन ' नहीं। यहाँ 'बाम्हन ' ' भुइंहार ' 'ठाकुऱ ' 'यादव ' 'राजभर ' तो हैं, 'व्यक्ति ' नहीं नज़र आता।
पता है ! यूनिवर्सिटी में देखा, 2-3 लड़के बिना कारण ही एक हरे पेड़ को जला कर भाग गए ! बस इतना ही घटा। लेकिन याद आता रहा। हरे पत्ते जलते हैं तो तड़फड़ाहट की सी आवाज़ होती है। वो लोग जो हरी पत्तियों को अकारण जला कर हंसते हुए बढ़ सकते हैं , कभी किसी बच्ची पर तेज़ाब फेंकते हुए भी हसने की सम्भावना रखते हैं। ये ख्याल ही थकाने वाला था। मैं ज्यादा देर इस ख्याल को ओढ़े नहीं रहना चाहती थी। सच मानो, सो भी गई थी। लेकिन सुबह तक चेहरे पर अनचाहे बोझ की तरह हरे पत्तों की तड़फड़ाहट की आवाज़ लदी रही।
तुमसे कहूं ? आज मन अच्छा नहीं है ! तुम क्या पूछोगे कि "क्यों ? क्या हुआ?"
जाने दो ! अब यूं ही कह दिया करूंगी , शून्य को लक्ष करके। कह देना ज़रूरी है, वो सब जो तुमने नहीं सुना।
जानते हो ! ऐसे कितने 'कुछ नही' संभाले हुए फिरा करती हूं ? कैसे जानोगे ! सुनो तो न !
जानते हो ! आज कल चश्मे के बाद भी कुछ चुभता है आँखों में, नंबर फिर बढ़ गया है शायद ! पहनती जो नहीं, उलझन होती है। छोटी सी नाक है न ! फिसल जाता है। बिना चश्मा पहने हुए रात को देर तक फेसबुक पर राजनीति पर राजनीति पढ़ा करती हूं। तय नहीं कर पाती, कौन ज्यादा नीचे गिर पाया है ! माँ कहने लगी रोटी बनाते हुए, "यहाँ की जड़ता कब जाएगी ! " दिल में आया, यहाँ जड़ता कहाँ है, जड़ता तो चेतन लोगों पर प्रयोग किये जाने क लिए नकारात्मक विश्लेषण भर है ! यहाँ तो कोई 'चेतन ' नहीं। यहाँ 'बाम्हन ' ' भुइंहार ' 'ठाकुऱ ' 'यादव ' 'राजभर ' तो हैं, 'व्यक्ति ' नहीं नज़र आता।
पता है ! यूनिवर्सिटी में देखा, 2-3 लड़के बिना कारण ही एक हरे पेड़ को जला कर भाग गए ! बस इतना ही घटा। लेकिन याद आता रहा। हरे पत्ते जलते हैं तो तड़फड़ाहट की सी आवाज़ होती है। वो लोग जो हरी पत्तियों को अकारण जला कर हंसते हुए बढ़ सकते हैं , कभी किसी बच्ची पर तेज़ाब फेंकते हुए भी हसने की सम्भावना रखते हैं। ये ख्याल ही थकाने वाला था। मैं ज्यादा देर इस ख्याल को ओढ़े नहीं रहना चाहती थी। सच मानो, सो भी गई थी। लेकिन सुबह तक चेहरे पर अनचाहे बोझ की तरह हरे पत्तों की तड़फड़ाहट की आवाज़ लदी रही।
तुमसे कहूं ? आज मन अच्छा नहीं है ! तुम क्या पूछोगे कि "क्यों ? क्या हुआ?"
जाने दो ! अब यूं ही कह दिया करूंगी , शून्य को लक्ष करके। कह देना ज़रूरी है, वो सब जो तुमने नहीं सुना।
उफ़्फ़!
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