मैं एक विरोधाभास का पीछा कर रही हूँ, तुम भी एक कल्पना को गले लगाए हो !
तुम्हारे साथ कभी ऐसा हुआ है कि एक साथ कई तरह की बातें दिमाग से तेज़ी से होकर गुज़र जाएं और तुम उनकी रफ़्तार का पीछा ही न कर सको ! हफ्तों पुरानी चादर पर आलस में लिपटा धप्प से पड़ा हुआ मेरा शरीर मेरे दिमाग से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है। बाहर बारिश हो रही है। बारिश से धुले घाट की महक मेरे अंतर में भरी जा रही है , चलूं घाट की तरफ... उफ्फ... तबियत भी तो साथ नहीं देती ! मैं फिर किताब में आंखें धंसा लेती हूं , डैग्नी टैग्गार्ट* अपनी मानसिक क्षमता के समकक्ष किसी मित्र/शत्रु की अनुपलब्धता की खीझ से उठकर बाहर निकली है, वो किस ओर जाएगी ? मैं पढ़ती जा रही हूं, जैसे पढ़ते जाने से मुझे मेरी खीझ का समाधान मिल जाएगा। जैसे मेरी, डैग्नी टैग्गार्ट की और सभी तरक्की पसंद औरतों की खीझ एक ही है ! जैसे आत्म-उन्नति की इच्छा को अपराध-बोध से सान दिया जाना किसी देश-काल में सीमित नहीं है , "तुम स्वार्थी हो !" का लांछन 'सार्वभौमिक उद्घोषणा है और हर सफल स्त्री इससे गुज़र कर ही आगे बढ़ी है। मैं पढ़ती जा रही हूं ... रेडियो पर गाने की लाइन ने ध्यान खींच लिया है ...
"साथी रे.. थोड़ा ठहर जा, अभी मौसमों का बदलना बाक़ी है ! "**
अर्को प्रावो ने लिखा है। मैंने आँख बंद कर ली है ! मुझसे ही कहता जा रहा है संगीत जो मैं किसी अपने से सुनना चाहती थी। मेरी बंद आंखें गंगा के घाट, बारिश की खुशबू, कांच की आधी खुली खिड़की , आधी पढ़ी किताबों , आधे जिए लम्हों , जल्दबाज़ी के आधे-अधूरे आलिंगन, अधूरे से चुम्बन से होकर गुज़रती हुई फिर गाने की लाइनों पर ठहर गयी हैं...
सच ही है, मैं एक विरोधाभास का पीछा कर रही हूँ, तुम भी एक कल्पना को गले लगाए हो। न तुम पूरा का पूरा मुझे देख पाते हो, न मैं तुम्हें ! हमारे 'सच ' मेल नहीं खाते। मैंने किताब बंद कर दी है, उठ कर बाहर झूले पर बैठी पैरों में बारिश के हल्के छींटे महसूस कर रही हूं।
मैं ठहर तो जाउंगी , लेकिन मौसम के बदलने के साथ क्या वक़्त भी बदल जाएगा ?
* डैग्नी टैग्गार्ट - आयन रैंड के उपन्यास 'एटलस श्र्ग्गड ' की चरित्र।
** https://www.youtube.com/watch?v=KWJwId8VP_8
"साथी रे.. थोड़ा ठहर जा, अभी मौसमों का बदलना बाक़ी है ! "**
अर्को प्रावो ने लिखा है। मैंने आँख बंद कर ली है ! मुझसे ही कहता जा रहा है संगीत जो मैं किसी अपने से सुनना चाहती थी। मेरी बंद आंखें गंगा के घाट, बारिश की खुशबू, कांच की आधी खुली खिड़की , आधी पढ़ी किताबों , आधे जिए लम्हों , जल्दबाज़ी के आधे-अधूरे आलिंगन, अधूरे से चुम्बन से होकर गुज़रती हुई फिर गाने की लाइनों पर ठहर गयी हैं...
सच ही है, मैं एक विरोधाभास का पीछा कर रही हूँ, तुम भी एक कल्पना को गले लगाए हो। न तुम पूरा का पूरा मुझे देख पाते हो, न मैं तुम्हें ! हमारे 'सच ' मेल नहीं खाते। मैंने किताब बंद कर दी है, उठ कर बाहर झूले पर बैठी पैरों में बारिश के हल्के छींटे महसूस कर रही हूं।
मैं ठहर तो जाउंगी , लेकिन मौसम के बदलने के साथ क्या वक़्त भी बदल जाएगा ?
* डैग्नी टैग्गार्ट - आयन रैंड के उपन्यास 'एटलस श्र्ग्गड ' की चरित्र।
** https://www.youtube.com/watch?v=KWJwId8VP_8
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/06/2019 की बुलेटिन, " अमर शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी जी की ११८ वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteहर सफल स्त्री को गुजरना होता है इन उदघोषणाओं से...डैग्नि भी ऐसा सोचती है.
ReplyDeleteऔर हम बस अपने परिवेश को ही समझते रहे.
आपने पढ़ा और प्रतिक्रिया दी, बहुत धन्यवाद। हमारे समय में स्त्री के मन और पहचान का विरोधाभास बढ़ता ही दिखता है, हल होता नहीं।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना 26 जून 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह!! बहुत उम्दा ।
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