दो समोसे, इक्कड-दुक्कड, खडिया और सिलेट ...

रात के डेढ़ बजे हैं, मौसम की उमस अब कम है। हवा में शीतलता आ गयी है, बाहर आम का पेड़ अब दोपहर जैसा चिढ़ा हुआ नहीं लग रहा, कुछ शांत है। मैं यहाँ बाहर मनी-प्लांट के पास बैठी हूँ, अद्वित सोया है। घर शांत है। मुझे यहाँ अच्छा लग रहा है। अब इस वक्त यहाँ बैठे कितनी ही बातें मेरे मन से होकर शून्य में खो जा रही हैं, जो मेरे मन पर कितनी भारी हैं मगर जिनका कोई औचित्य नहीं। मेरी उँगलियों के पोरों में गर्म पानी और डिटर्जेंट से होने वाली जलन, पैरों की उँगलियों में दोपहर की हड़बड़ाहट की कई ठोकरों की टीस रह-रह कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है।बोरो-प्लस की ट्यूब में अब ज़्यादा कुछ शेष नहीं है, "कहाँ लगाऊँ" का चुनाव इस वक्त थका देने वाला मालूम होता है, बस ट्यूब हाथ में लिए उसके पीछे की नोक से कलाई सहला रही हूँ जहां कल मधुमक्खी ने काटा था। क्या मैं भी जाकर सो जाऊँ? मगर उठने के साथ ही फिर वही हड़बड़ाहट, जलन, कटना, चुभना, चोटें.... इनका अंत कहाँ है?

    मेरी हथेलियाँ अब माँ जैसी लगने लगी हैं।माँ की नानी जैसी।माँ के जीवन पर भी तो वही जलने कटने चुभने और चोटों के निशान हैं।पहले नज़र नहीं आते थे, अब दिखते हैं।अब अगला पिछला सब कुछ साफ़ दिखता है।अरे!! उदास नहीं हूँ, ये कब कहा मैंने? बस एक बदलाव का अनुभव कर रही हूँ।अब "कैसी हो?" पूछे जाने पर "ठीक हूँ" कहना सीख रही हूँ। हंसते क्या हो!! हाँ, जानती पहले भी थी, यही कहना होता है, मगर कितना लड़ती थी तुमसे, कि सुनना नहीं होता तो पूछते क्यों हो "कैसी हो?" । अब कैसे झट से कह देती हूँ "ठीक हूँ, सब अच्छा है, दुनिया परीलोक है, मैं चाँद तारों में विचर के लौटी हूँ, फ़लाना, फ़लाना, फ़लाना।" सौ झूठी बातें बनाना सीख लिया मैंने। अब तुम भी तो खुश हो। 

    मुझे ग़ुस्सा है, की सरकार ने कोविड को लेकर लापरवाही क्यों बरती, मुझे दुःख है कि मेरी सहेलियाँ तकलीफ़ में हैं, मुझे चिंता है की मेरे माता-पिता बूढ़े हो रहे हैं, मुझे घुटन है इस डर से जिसमें दुनिया २ सालों से क़ैद है, मुझे घृणा है कि मैं अपने काम के प्रति ईमानदार नहीं हूँ, मुझे बेचैनी है के मैंने २ सालों में कुछ पढ़ा नहीं, मुझे चिढ़ है की तुम्हें इन बातों की परवाह नहीं, मुझे उलझन है कि मेरा शरीर मेरा नहीं, मैं नींद में जागती रहती हूँ, मुझे सब सुनाई देता है, मुझे सब दिखाई देता है, मैं कुछ सुनना नहीं चाहती, मैं कुछ देखना नहीं चाहती।

        स्कूल इंटर्वल के दौरान कैंटीन से दो समोसे लेकर हम इमली के पेड़ के नीचे जहां बैठते थे, इस वक्त, रात के डेढ़ बजे, जब मौसम की उमस कम है, मैं वहीं बैठी हुई हूँ, माँ भी अपनी स्कूल यूनफ़ॉर्म में दो चोटी बांधें वहीं सामने इक्कड-दुक्कड खेल रही है, वो खुश है, नानी भी वहीं पास में सिलेट* और खड़िया लिए बैठी है, मेरी सहेलियाँ जो अब माएँ हो चुकी हैं, उनका भी यहीं इंतज़ार कर रही हूँ। बस यहीं मुझे अच्छा लग रहा है।   


*स्लेट 

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