जो थोड़ी भीग जाती है...

 



वो जो नीचे की रोटी है

जो थोड़ी भीग जाती है

जिसे कोई नहीं खाता

वो रोटी मां खाती है।

        

            कल्पना में आ ही नहीं पाया वो ठौर जहां सर टिका कर सारे आंसू उड़ेल देने थे। खूब थक जाने बाद जिधर को देखना था.. कि उठो...  बस हिम्मत करके वहां तक पहुंच जाओ .. फिर सब ठीक हो जाएगा... वो जगह नहीं रही , जब जीवन के समीकरण से मां को हटा कर सोचना चाहा.. जीवन ही नज़र नहीं आया। वो जो उन्माद और खुमारी थी.. जिसमें ज़रा अकड़ कर उसकी भावनाओं को लतेड़ दिया था, वो खुमारी थी... सो उतर गई... अकड़ कंठ के कुछ और भीतर एक गांठ में बदलती चली गई...

      मैं छत के दूसरे छोर से मां को धूप में बैठ कर बथुआ ( साग) चुनते देख रही थी। भवें सिकोड़ कर साग के लच्छे को आंखो के बिल्कुल पास ला कर ध्यान काफ़ी देर तक देखतीं... कुछ रखतीं, कुछ हटातीं.. हटाए हुए में से फिर कुछ रख लेती... फिर जाने क्या सोच कर उसे वापस फेंक देतीं। उनका चश्मा नीचे रह गया था, उनके मांगने के बावजूद न मैं ला कर दे पाई, न बहन, और भाई को तो साग बनाना ही व्यर्थ का उपक्रम लगता था!  

        उन्होंने दूर से फिर चश्मा लाने का इशारा किया... उन्हें क्या पता होगा कि मैं यहां खड़ी होकर उन्हें मन ही मन समीकरण से हटा रही हूं!! मैं चोट से परेशान बेटे को गोद में लिए थी..  वो कुछ देर वैसे ही आंखे कभी बड़ी कभी छोटी करते हुए साग के लच्छों को घूरती रहीं फिर गुस्से में मुझे पुकारा... मैं जरा भकुआई हुई उनके पास गई.. 

     "अभी से सब अपने ऊपर लाद लेने जरूरत नहीं है! अभी हम हैं इसी दुनिया में... अभी इसको मेरे पास छोड़ के जाओ नीचे... कब से चश्मा मांग रहे हैं समझ में नहीं आ रहा है !! " डांटने के ही स्वर में उन्होंने कहा।

    वो क्या सुन रही थीं सब!! मैं हड़बड़ाई हुई सी नीचे भागी। बेटा चंचल है... मां की हड्डियां आर्थराइटिस की भेंट चढ़ चुकी हैं... किसी भी क्षण एक धड्डड की आवाज.. और फिर एक चीख!! बस इसी पूर्वकल्पना में मन हमेशा ही सहमा सा रहता है। ऊपर आई तो बेटा मां के साथ साग के लच्छों से खेल रहा था। 

     मैं वहीं बैठ गई। मां के लिए वो ठौर कौन सा है !! मां उम्मीद के लिए किस ओर देखती होगी ! जैसे मेरे लिए मां है, उनके लिए कौन है !! 






Comments

  1. मां की समीकरण में भी एक लच्छे की भांति ठौर था लेकिन शायद कभी वो सुलझ गया..या कहूं विज्ञान की पकड़ से परे जब मन काया दोनों ने वो शब्द ओढ़ा तो सब लच्छे सुलझ गए...वाकई ठौर ढूंढने से ठौर बनने का सफर मां शब्द की अनुभूति में ही गुथा है जो न किसी काल का मौताज़ है न किसी दोलन करती उम्मीद का..❣️

    लेख प्रशंसनीय है ।😊

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