मैं वो नहीं हूं जो तुम्हें नजर आती हूं!

 कुछ ऐसे क्षण होते हैं, जिनमें चेतना बाहर को नहीं, भीतर को झांकती है, चेतना में गुंथा ऐसा क्षण जहां से आपको याद रह जाता है, कि वो, वहां से मैं ,"मैं" हो गया था। वो आपके एक व्यक्ति के रूप में अस्तित्व में आने का क्षण होता है। हर किसी का वो "मैं" उस सांचे से अलग होता है, जो बाहर से हर "तुम " को नजर आ रहा होता है। ये कोई बड़ी अनोखी बात नहीं है... कि तुम वो नहीं हो जो मुझे नजर आते हो... कि मैं वो नहीं हूं जो तुम्हें नजर आती हूं।

       मेरी चेतना मुझे हाथ पकड़ कर जहां ले जाती है, मेरे अस्तित्व का, मेरे मैं होने का जहां संज्ञान है... वो बड़ी अज़ीज़ खुशबू है, गंगा की, पुराने बड़े पत्थरों पर हरी काई की, सेकेंड हैंड किताबों के पुराने पन्नों की, लाइब्रेरी की मुहर की, सूती धोती में सींझे हुए पसीने की, ढिबरी में जलते पतंगे की, बनारसी पान की, स्याही वाली कलम और उसकी स्याही में भीगे उंगली के पोरों की, पसीने में घुले आंसुओं की, और बहुत सारी ऐसी बातों की जिनका तुमसे या तुम्हारी दुनिया से कोई संबंध नहीं हो सकता। 

       मैं वो हर क्षण हूं जो मैंने जिया, जिनसे मैं लड़ी, जिनसे मैं हारी और फिर लड़ी, जिनसे मैं उबर पाई, जिनमें मैं डूब गई.. मेरी आत्मा के जख्म, मेरे इरादों का मरहम, मेरी जिंदा बने रहने की जिद... ये सब जो तुम्हें नजर नहीं आता, जो तुम्हारे लिए गैर ज़रूरी है, ये सब मैं हूं।

        मगर बहुत याद करने पर भी, मेरी चेतना मेरे अस्तित्व को उस रूप में नहीं देख पाती जो मुझसे अपेक्षित है... बस एक मादा शरीर, स्वाभिमान से हीन, तर्क से हीन, निर्णय क्षमता से हीन... चेतना के संज्ञान से हीन.. ओढ़नी में उलझा... झुके कंधे, झुकी आंखें, दबी आवाज... 


     नहीं नहीं... तुमसे समझने में कुछ भूल हुई। वो "मैं" नहीं। वो तुम्हारा सांचा भर है, जो अब खिया गया है।

उसे तोड़ देने की जरूरत है ... 



        

        

   

     

       

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