मुझे पहेली होना अच्छा लगा
बहुत थक जाने पर नींद भी नहीं आती अक्सर। बहुत उदास होने पर रोया भी नही जाता। चोट ज्यादा हो तो दर्द भी महसूस नहीं होता। बहुत बातें हों मन में तो कहा नहीं जाता कुछ। मैं चुप ही रही। सालों साल... बस चुप। एक हल्की मुस्कान पहन कर जीती चली गई। किसी को कुछ पता नहीं चला। तुम्हें भी नहीं। मैंने चुप के ऊपर बिंदी सजा ली, चूड़ियां डाल ली, झुमके लटका लिए। चुप सुंदर लगने लगा। लाली में सजी मुस्कान के भीतर एक रहस्य का सा आभास प्रतीत होने लगा। मैं पहेली हो गई। मुझे पहेली होना अच्छा लगा...
.... ये कुछ पुनरोक्ति जैसा लग रहा है, ऐसा कुछ पहले लिख चुकी हूं शायद... मैं रुक गई। लिखना अवरुद्ध हो गया। अब मेरी दृष्टि दाहिने पैर के पंजे पर स्थिर हो गई थी जिसकी नसों में सुबह से असहनीय दर्द था। खिड़की से हर तरह का शोर अंदर आ रहा था। चुनाव का माहौल था। बाहर कुछ अंतराल पर बहुत से बातें बेचने वाले फेरी लगा रहे थे। उनकी हांकों से मन ऊब चुका था। गर्म मौसम की ताप मन को खुश्क कर रही थी। मुझे आगे कुछ लिखने की इच्छा नहीं हुई।
बीते कल की थकान अभी तक पलकों पर लदी हुई थी... उस पर आने वाले कल की व्यस्तता ने घेर लिया। न जाने ये रात दिन की कैसी व्यस्तता थी जिसमे रत्ती बराबर नया कुछ नहीं घटता था। मैंने कलम एक ओर सरका दी। फिर पता नहीं क्या सोचकर कलम उठाई, और एक झटके में सारा लिखा हुआ काट दिया।
नए साफ पन्ने पर फिर लिखना शुरू किया... "बहुत थक जाने पर नींद भी नहीं आती अक्सर। बहुत उदास होने पर रोया भी नहीं जाता...
Bhut khub piroya hai aapne di..
ReplyDeleteMai Aisa kbhi ni tha, kuch bolta apni baato ko rakhta lekin... Mughe chup hona accha lga...
बहुत बढ़िया👏
ReplyDeleteवाह!
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