मैंने नाम भी उतार दिया...

     वहां कोई मंदिर नहीं था। मेरे अहंकार से बहुत ऊंचे पेड़ थे, जिनपर अनगिनत पक्षी वृन्द का बसेरा था, उनकी बहुत सारी बातें थी और थी बहुत गहरी चुप। इस पाती से उस पाती कुछ समझाते हुए बड़े आवेश से जातीं, फिर सामने बैठकर जैसे पूछती हों, कि मेरे पल्ले कितना पड़ा! मैं उनकी जोर से धड़कती हुई नन्ही काया की ओर देखती, उन्हें सांस लेने को समय नहीं था, उन्हें कुछ पता था जो मुझे बताना चाहती थीं। वो मुझे और गहरे लेकर गईं और वहां से एकाएक इशारा किया सड़क के दूसरी ओर बिछे पहाड़ों की ओर, मैं अपना बौनापन लिए वहीं पत्थरों पर रुक गई। एक दूसरी चिड़िया मेरे ठीक बगल से ऊपर को भागी, और काले बादलों में खो गई। बिजली एक बार पूरे जोर से कड़की, आंखें अपने आप ही बरसने लगीं। मैं चप्पल उतार कर आगे बढ़ी, तुम नहीं मिले। मैंने नाम भी उतार दिया। दर्द जो पालती आई थी, वो भी एक ओर रख दिए, उम्मीद छोड़ दी, मुझे कुछ हलचल सी महसूस हुई। यूं लगा तुम वहीं किसी ओट से मुझे देख तो रहे हो, सामने नहीं आते।मैं कुछ देर रुकी, फिर ज़िद भी उतार कर वहीं आंखें बंद किए बैठ गई। देर तक तुम्हें खुद को देखते महसूस करती रही। सचमुच दृष्टि का भी स्पर्श होता है। 

      वहां से लौटते हुए, तुम्हारी दृष्टि का स्पर्श मेरे साथ चला आया। ऊँची घास पर चलते हुए, साँस के आरोह-अवरोह में, भीग जाने के डर में,  गुनगुनी ठंडक में,  गुलज़ार के गानों में, हर क्षण तुम्हारी दृष्टि का स्पर्श साथ बना रहा। उसके साथ ही गुँथा रहा एक सवाल, 'तुम कहाँ हो?' तुम सचमुच थे वहाँ? , उस सर्द झुरमुट की ओट में, उस वृहद् एकांत में,  या मैं ही थी उस ओर भी!  उसी आश्चर्य से ख़ुद को आँखें मूँदें बैठी हुई देखती रही थी देर तक। फिर लौट गई उस ओर, जहां कोई मंदिर नहीं था।

    या शायद कोई नहीं था, न मैं, न तुम, सिर्फ़ पेड़ थे, मेरे-तुम्हारे सम्मिलित अहंकार से बहुत ऊँचे पेड़... 

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