राधिकाराधितम् ...

       बहुत आगे-पीछे विचार कर उसने ठिठकते शब्दों से कहा, "एगो धागा गले में डाल लीजिए, सुहागिन का गला सूना, हाथ खाली, ठीक नहीं लगता है", मैं इन प्रश्नों की आदि... मुस्कुरा उठी। अनायास ही मेरे मुंह से निकला...  "जो सब श्रृंगार करती हैं, उनका सब ठीक चलता है?" वो कुछ नहीं बोली, आंखें उदास हो गई, हाथ चलते रहे। कुछ देर ठहर कर उसने कहा... "ठीकै बोल रही हैं, हई सब तो भुलाने के लिए है। हमार त बैलगाड़ी भगवान एकै पहिया क दिए, हमको अकेले खींचना है। "

       मेरे सामने जाने कितनी एक पहिए की बैलगाड़ियां घूम गईं। दूसरा पहिया कहीं अवसाद में दिखा तो कहीं उन्माद में, कहीं हीनता में दिखा तो कहीं ठसक में, कहीं अज्ञानता में दिखा तो कहीं पूर्ण ज्ञान से युक्त। लाख देखने सोचने पर भी ठीक वैसा साथ नहीं दिखा दो पहियों में जैसे कि अपेक्षा सरल सुंदर कल्पनाओं में होती है।

चलो साथ न सही, तालमेल ही सही, उचित सामंजस्य ही सही। इतना दुर्लभ क्यों हो गया 'प्रेम' के ठीक अर्थ में प्रेम देना, 'साथ' के ठीक अर्थ में साथ देना, उत्तर-प्रत्युत्तर के दुष्चक्र से मुक्त होकर मात्र सुनना, शुद्ध रूप में सुनना...

मैं सुनती रही बहुत देर तक उसकी बातें, फिर उसके जाने के बाद की चुप... इसीलिए उदास थी उस दिन। इसीलिए गाती रही थी बहुत देर तक ...

"विष्णवे जिष्णवे शाङ्खिने चक्रिणे

रुक्मिणिरागिणे जानकीजानये ...

अच्युतानंत हे, माधवाधोक्षज

द्वारका नायक, द्रौपदी रक्षक..."

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