धीमी आंच पर "मैं"

       तुमने छोटे-छोटे मिटटी के बर्तन देखे हैं! वो बर्तन जिनमें कल्पनाएं पकती हैं! उन्हीं बर्तनों में "मैं" का पकना भी आरंभ हो जाता है। विरोध तब स्वयं को प्रकट करता है, जब ये "मैं" बर्तनों का आकार बढ़ने के बाद भी, बर्तनों में समा नहीं पाता, बाहर छलकने लगता है, विस्तार पाने लगता है। 
       विडंबना ही है कि हर "तुम" को लगता है, वो "मैं" को उससे बेहतर जनता है। यह "तुम" के द्वारा "मैं" का व्यक्तित्व निर्धारण कैसे संभव है! मेरे भीतर जितना भी "मैं" था उसे तो मैं अपने ही पैरों से कुचलती आई हूं, अब जो है वो तो सिर्फ एक ज़िद है, जो हार नहीं सकती, क्योंकि जीने के क्रम में उसने खिलौने के बर्तन में पकने वाली, प्रेम-कविताओं पर सिकने वाली, पुराने गानों में घुलने वाली कितनी ही कल्पनाओं की हत्या की है। अब उसके पास हरने का विकल्प नहीं रहा।  अपने "मैं" को उसने स्वयं ही दो हिस्से में फाड़ दिया है और उसके ही दोनों हिस्से जाहिल कुत्तों से एक दूसरे को नोचते रहते हैं।
        अपनी ही प्रकृति से आखिरी क्षण तक लड़ते हुए जीना और अपने भीतर अपनी ही मृत्यु का प्रतिक्षण साक्षी होना क्या होता है जानते हो ? नहीं ?? गुड़िया से खेलने वाली वो बच्ची जानती है जिसने अपनी गुड़िया फेंक दी क्योंकि किसी ने उससे कहा "लड़कियां सिर्फ गुड़िया ही खेल सकती हैं, और कुछ नहीं कर सकतीं "
        मैने आंच धीमी कर दी है, मन साध लिया है, अपने हिस्से समेट रही हूं, इस हिंसा से मन उकता गया, किसे क्या प्रमाणित करना है ! गाने सुनकर मुस्कुराने में, गुड़िया को सजाने में, और "मैं" के अनंत विस्तार में विरोध है ही कहां! अब धीमी आंच पर फिर "मैं" को चढ़ाया है.. इस बार खुशबू अलग है, आशा है स्वाद भी बेहतर होगा।
          

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