कुछ भी तो नहीं हुआ...
...लेकिन वो फिर उठी, इस बार सांस पहले से कुछ भारी थी, चिड़चिड़ापन और गाढ़ा। वह चार्जर लेने पुनः कमरे ओर बढ़ी, इस बार चौखट पर उभर आई कील के प्रति वो सतर्क थी। रक्त की एक महीन धारा बाएं पैर से बह निकली थी, मगर अभी दर्द का अनुभव नहीं हो रहा था।
उसे शीघ्रता थी, चूल्हे पर आंच तेज थी, बाथरूम में नल खुला था, और उसका तीन वर्ष का लाडला कमरे की फर्श पर शैंपू उड़ेल चुका था...
अब रात हो चुकी है, बेटा सो गया है, घर में अंधेरा है, सड़क पर इक्का-दुक्का वाहनों की आवाजाही अब भी सुनाई देती है, अब नींद में जलती आंखों को समय है, चोट को देखने का, उस पर मरहम लगाने का, मगर अब इच्छा नहीं होती। दर्द महसूस तो होता है, मगर अवांछित नहीं लगता। अब वो बस सो जाना चाहती है। लेकिन अब... सारे दिन की उपेक्षित भावनाएं लौट-लौट आती हैं मन में। नींद का स्थान अश्रु ले लेते हैं। "क्या हुआ?" का कोई निश्चित उत्तर नहीं होता उसके पास कभी। जाने कैसा भार है कि मन शांत नहीं होता, नींद यहीं है फिर भी आती नहीं।
चप्पल, झुमके, बिंदी, कंगन की ही तरह काश हाथ, पैर और मन भी उतार कर रख देना संभव हो पाता कुछ घंटों के लिए..
अरे! क्या हुआ? 🤔
ReplyDeleteParenting is tough but it makes you strong....sab thik h
ReplyDelete🙂
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