आओ... सत्य प्रतीत होने वाली बातें करें
सुख... पूर्ण सुख के रूप में, और दुख... पूर्ण दुख के रूप में अब अनुभव नहीं होता। अब हंसी नहीं आती हंसने की बात पर। उन बातों पर हंसने की क्रिया होती है जिनपर हंसा जाना अपेक्षित है, और उतनी ही हंसी आती है जितनी स्वीकृत मान्यता के अनुरूप है।
रोना भी अब उन बातों पर नहीं आता, जो दुख की होती हैं... अपितु उन बातों पर आता है जिनपर क्रोध आना चाहिए। दुख की बातों पर खूब गहरे चुप की एक और चादर चढ़ जाती है। दुख पैठता जाता है भीतर... और भीतर ... चुप- चाप।
उथली बातों पर हैरानी नहीं होती अब, एक सहजता का अनुभव होता है। उथली बातें सत्य प्रतीत होती हैं, उन पर प्रतिक्रिया भी आसान हैं। सत्य असहज करता है। सत्य से भली लगती हैं सत्य प्रतीत होने वाली बातें।
सत्य कहने से बेहतर है, मौन बैठो मेरे पास कुछ देर... आओ... सत्य प्रतीत होने वाली बातें करें.. पूर्ण निष्ठा से... और संतुलित मात्रा में हंसे अपनी असहजता पर।
🤔👌
ReplyDeleteठीक बात
ReplyDelete🙂
Delete