वो चेहरा मेरा नहीं था...

     कल रात एक सपना देखा। सपने में मैं घर जैसे दिखने वाले एक स्थान से बाहर निकली और रोज़ की ही तरह अपने मार्ग पर चलने लगी। रास्ता लंबा था और कई सारे लोग मुझे मिले जिन्हें मैं नहीं जानती थी । वे सब मेरी और देखकर मुस्कुराते, कुछ कहते, लेकिन मैं उनकी भाषा नहीं समझ रही थी। उनके हावभाव से मैंने अनुमान लगाया कि शायद वे अभिवादन और औपचारिक कुशलता पूछने का अपना अभ्यस्त क्रम दोहरा रहे हैं। मैं प्रतिक्रिया में मुस्कुरा देती। तेज़ कदमों से मैं अपने गंतव्य तक पहुँची। वहाँ सबके चेहरे परिचित थे फिर भी मुझे उन्हें पहचानने में कठिनाई हो रही थी। अब मेरी हृदयगति बढ़ने लगी। मैंने रोज़ की भाँति उनसे संवाद करने का प्रयास किया लेकिन उनकी भाषा मुझे पूर्णतः अपरिचित लग रही थी, यद्यपि वे एक-दूसरे की बात ठीक ठीक समझ रहे थे। मुझे अपने भीतर घबराहट रेंगती हुई प्रतीत हुई। मैंने अपनी बात उनसे कहने का प्रयास किया लेकिन वे सभी भौंचक से मेरे हावभाव को पढ़ने का प्रयास कर रहे थे। मुझे प्रतीत हुआ की मेरा स्वर धीमा होता जा रहा है। मैंने अपनी समस्त शक्ति लगाकर कर ऊँचे स्वर में अपनी बात समझनी चाही, मगर वे सभी कुछ हैरानी, कुछ उपहास और कुछ व्यंग से मुझे देख कर कुछ कह रहे थे। अब मैंने चीखना शुरू किया,  लेकिन अब मेरा स्वर मुझे ही सुनाई नहीं से रहा था। मेरा कंठ सूखने लगा था, साँस भारी हो गई थी। वे सभी हतप्रभ थे। वे मुझे कुछ समझाना चाह रहे थे। अब उनके चेहरों पर करुणा थी। मैं वहाँ से बाहर निकल जाना चाहती थी, लेकिन मेरे पाँव शिथिल हो चुके थे। 

    मेरी दृष्टि अब तुम्हें ढूँढने लगी... तुम नहीं थे, बाहर भीतर कहीं नहीं... मैं उठी और चलने लगी, मेरी गति मंद से तेज़ होती गई। मैं जल्द से जल्द ऐसी किसी जगह पहुँचना चाहती थी जहां कोई मेरी भाषा समझता हो, जहां मैं किसी की भाषा समझती हूँ। मुझे ज्ञात नहीं मैं कब दौड़ने लगी। भागते भागते मैं वहाँ पहुँची जहां से मैंने चलना शुरू किया था। मगर अब वो स्थान पहले से अधिक अपरिचित लग रहा था। मैं अंदर गई, वहाँ मेरी वस्तुएँ तो थी, मगर वो मेरा घर नहीं था। मेरी दृष्टि आईने पर गई.... मेरे हाथ ठंडे पड़ चुके थे .... वो चेहरा मेरा नहीं था !! वो मैं नहीं थी !! मैं एक चीख के साथ उठ कर बैठ गई ... 

   मैंने भाग कर आईने के सामने गई.... आईने में अपना प्रतिबिंब देख कर मेरी आँखों से अश्रुओं की अनियंत्रित धारा बह निकली। वो सब स्वप्न मात्र था... सच नहीं। मैं उत्साह से तुम्हारे पास आयी तो थी तुम्हें बताने ... "पता है आज मैंने कितना भयानक सपना देखा....",  लगातार बोलती गई थी मैं  ...  लेकिन तुम तो ऐसी हैरानी से मेरा चेहरा देख रहे थे जैसे मैं कोई दूसरी भाषा बोल रही हूँ... तुम्हारे चेहरे से तो ऐसा लग रहा था जैसे तुम मुझे पहचानते ही नहीं।

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