कढ़ी चावल और एक कटोरी प्रेम ...

 .... मुझे तुम नजर से... गिरा तो रहे हो... मुझे तुम कभी भी... भुला न सकोगे ...

सुनते हुए कितना सुकून मिला था.. एक तरह का अभिपोषण हारे हुए मन को, लेकिन अगले ही क्षण इस भाव की निर्थकता भी प्रकट हो गई। क्या अंतर पड़ता है अगर न भुला सके कोई! जो नजर में रखना नहीं चाहता, उसकी यादों में बने रहने की जिद क्यों? आज जिस पीड़ा को मैंने अनुभव किया कल ये भी करे... ये विचार प्रेम से नहीं पनप सकता। इसका मूल तो अहंकार में है, अधिकार प्राप्त करने की भावना में है।

प्रेम तो भावना भर है। किसी भी क्षण हृदय में उतर जाती है, और वहीं बनी रहती है प्राण छूटने तक... जैसे मौसम बदलने की खुशबू, जैसे मिट्टी का दिया, जैसे नानी के हाथ, जैसे कदंब के फूल, जैसे पुरानी किताब के पन्ने , जैसे कढ़ी-चावल का स्वाद ... इन पर अधिकार कैसे किया जा सकता है! इन्हें तो बस जिया जा सकता है।

जैसे इस क्षण मैं जी रही हूं.. आज कढ़ी चावल बनाए हुए मां की हर फटकार, हर थपकी, आंसू, हंसी और दांतों की बीच का अंतर सब साथ रहा। कढ़ी तो वैसी नहीं बनी जैसी मां बनाती है, लेकिन जिसे अंगुलियों में लपेट कर सुड़क रही हूं, थाल से जिसे काछ कर अपने भीतर समा लेना चाहती हूं वो प्रेम ही तो है!

मैं प्रेम को पी रही हूं... 

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