मुट्ठी में कुहासे को भींचने का यत्न !
मैं, मेरा जीवन, मेरा मरण... कितनी कठोर माया है। मुक्ति के कथन कितने सारहीन। ये स्पष्टतः जानते हुए भी कि "मैं" मात्र एक प्रवंचना है, "मैं" से पूर्णतः मुक्ति की कामना होती ही नहीं।कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में बने रहने का मोह सूत भर भी नहीं छूटता। स्वयं को जान लेने की, "मैं" को देख लेने की कितनी प्रबल उत्कंठा थी। लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे चित्र स्पष्ट होने लगा है, सत्य के साथ एक निर्धारित दूरी बना कर ही इस प्रपंच को जीना संभव लगता है। अधिक निकट जाने पर देखने, सोचने और जीने में सामंजस्य नहीं बन पाता।
मेरा "मैं" मुझे किसी सघन कुहासे सा अनुभव होता है। जो पर्याप्त दूरी से तो स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है, किन्तु जैसे-जैसे उसके समीप बढ़ती हूं, वो पुनः उतनी ही दूर प्रतीत होता है। उसकी नमी मुझे घेरे हुए तो है किन्तु हाथ बढ़ाने पर हाथ में कुछ भी नहीं आता। पीछे मुड़ कर देखती हूं तो लगता है जो था सब पीछे ही था। सामने देखती हूं तो लगता है अभी तो सारी यात्रा शेष है। इस "मैं" को साध लेने की सारी यात्रा जैसे "मैं" के भीतर ही घट रही है, और यह सारा उपक्रम उतना ही निरर्थक है जैसे कुहासे को मुट्ठी में भींच लेने का यत्न।
सत्य का तेज मन के धरातल पर पहुंचने के पूर्व ही, उसकी गर्माहट मात्र से यह कुहासा ऐसे लुप्त हो जाता हैं, जैसे कभी कुछ था ही नहीं, है ही नहीं, होना संभव हो नहीं।
तब यह यात्रा क्यों है? मेरे संपर्क में आने वाला हर प्रिय अप्रिय इसे क्यों भोग रहा है? रंग क्यों हैं ? स्वाद क्यों? प्रेम क्यों है? नृत्य क्यों? गीत क्यों है? राग क्यों? मोह क्यों है? कृष्ण क्यों??
One have to know truth for answers of these questions
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