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कढ़ी चावल और एक कटोरी प्रेम ...

 .... मुझे तुम नजर से... गिरा तो रहे हो... मुझे तुम कभी भी... भुला न सकोगे ... सुनते हुए कितना सुकून मिला था.. एक तरह का अभिपोषण हारे हुए मन को, लेकिन अगले ही क्षण इस भाव की निर्थकता भी प्रकट हो गई। क्या अंतर पड़ता है अगर न भुला सके कोई! जो नजर में रखना नहीं चाहता, उसकी यादों में बने रहने की जिद क्यों? आज जिस पीड़ा को मैंने अनुभव किया कल ये भी करे... ये विचार प्रेम से नहीं पनप सकता। इसका मूल तो अहंकार में है, अधिकार प्राप्त करने की भावना में है। प्रेम तो भावना भर है। किसी भी क्षण हृदय में उतर जाती है, और वहीं बनी रहती है प्राण छूटने तक... जैसे मौसम बदलने की खुशबू, जैसे मिट्टी का दिया, जैसे नानी के हाथ, जैसे कदंब के फूल, जैसे पुरानी किताब के पन्ने , जैसे कढ़ी-चावल का स्वाद ... इन पर अधिकार कैसे किया जा सकता है! इन्हें तो बस जिया जा सकता है। जैसे इस क्षण मैं जी रही हूं.. आज कढ़ी चावल बनाए हुए मां की हर फटकार, हर थपकी, आंसू, हंसी और दांतों की बीच का अंतर सब साथ रहा। कढ़ी तो वैसी नहीं बनी जैसी मां बनाती है, लेकिन जिसे अंगुलियों में लपेट कर सुड़क रही हूं, थाल ...

वो चेहरा मेरा नहीं था...

      कल रात एक सपना देखा। सपने में मैं घर जैसे दिखने वाले एक स्थान से बाहर निकली और रोज़ की ही तरह अपने मार्ग पर चलने लगी। रास्ता लंबा था और कई सारे लोग मुझे मिले जिन्हें मैं नहीं जानती थी । वे सब मेरी और देखकर मुस्कुराते, कुछ कहते, लेकिन मैं उनकी भाषा नहीं समझ रही थी। उनके हावभाव से मैंने अनुमान लगाया कि शायद वे अभिवादन और औपचारिक कुशलता पूछने का अपना अभ्यस्त क्रम दोहरा रहे हैं। मैं प्रतिक्रिया में मुस्कुरा देती। तेज़ कदमों से मैं अपने गंतव्य तक पहुँची। वहाँ सबके चेहरे परिचित थे फिर भी मुझे उन्हें पहचानने में कठिनाई हो रही थी। अब मेरी हृदयगति बढ़ने लगी। मैंने रोज़ की भाँति उनसे संवाद करने का प्रयास किया लेकिन उनकी भाषा मुझे पूर्णतः अपरिचित लग रही थी, यद्यपि वे एक-दूसरे की बात ठीक ठीक समझ रहे थे। मुझे अपने भीतर घबराहट रेंगती हुई प्रतीत हुई। मैंने अपनी बात उनसे कहने का प्रयास किया लेकिन वे सभी भौंचक से मेरे हावभाव को पढ़ने का प्रयास कर रहे थे। मुझे प्रतीत हुआ की मेरा स्वर धीमा होता जा रहा है। मैंने अपनी समस्त शक्ति लगाकर कर ऊँचे स्वर में अपनी बात समझनी चाही, मगर वे सभी कु...

आओ... सत्य प्रतीत होने वाली बातें करें

सुख... पूर्ण सुख के रूप में, और दुख... पूर्ण दुख के रूप में अब अनुभव नहीं होता। अब हंसी नहीं आती हंसने की बात पर। उन बातों पर हंसने की क्रिया होती है जिनपर हंसा जाना अपेक्षित है, और उतनी ही हंसी आती है जितनी स्वीकृत मान्यता के अनुरूप है।        रोना भी अब उन बातों पर नहीं आता, जो दुख की होती हैं... अपितु उन बातों पर आता है जिनपर क्रोध आना चाहिए। दुख की बातों पर खूब गहरे चुप की एक और चादर चढ़ जाती है। दुख पैठता जाता है भीतर... और भीतर ... चुप- चाप।        उथली बातों पर हैरानी नहीं होती अब, एक सहजता का अनुभव होता है। उथली बातें सत्य प्रतीत होती हैं, उन पर प्रतिक्रिया भी आसान हैं। सत्य असहज करता है। सत्य से भली लगती हैं सत्य प्रतीत होने वाली बातें।            सत्य कहने से बेहतर है, मौन बैठो मेरे पास कुछ देर... आओ... सत्य प्रतीत होने वाली बातें करें.. पूर्ण निष्ठा से... और संतुलित मात्रा में हंसे अपनी असहजता पर।   

कुछ भी तो नहीं हुआ...

 ...लेकिन वो फिर उठी, इस बार सांस पहले से कुछ भारी थी, चिड़चिड़ापन और गाढ़ा। वह चार्जर लेने पुनः कमरे ओर बढ़ी, इस बार चौखट पर उभर आई कील के प्रति वो सतर्क थी। रक्त की एक महीन धारा बाएं पैर से बह निकली थी, मगर अभी दर्द का अनुभव नहीं हो रहा था।         उसे शीघ्रता थी, चूल्हे पर आंच तेज थी, बाथरूम में नल खुला था, और उसका तीन वर्ष का लाडला कमरे की फर्श पर शैंपू उड़ेल चुका था...           अब रात हो चुकी है, बेटा सो गया है, घर में अंधेरा है, सड़क पर इक्का-दुक्का वाहनों की आवाजाही अब भी सुनाई देती है, अब नींद में जलती आंखों को समय है, चोट को देखने का, उस पर मरहम लगाने का, मगर अब इच्छा नहीं होती। दर्द महसूस तो होता है, मगर अवांछित नहीं लगता। अब वो बस सो जाना चाहती है। लेकिन अब... सारे दिन की उपेक्षित भावनाएं लौट-लौट आती हैं मन में। नींद का स्थान अश्रु ले लेते हैं। "क्या हुआ?" का कोई निश्चित उत्तर नहीं होता उसके पास कभी। जाने कैसा भार है कि मन शांत नहीं होता, नींद यहीं है फिर भी आती नहीं।        चप्पल, झुमके, बिंदी, ...

धीमी आंच पर "मैं"

       तुमने छोटे-छोटे मिटटी के बर्तन देखे हैं! वो बर्तन जिनमें कल्पनाएं पकती हैं! उन्हीं बर्तनों में "मैं" का पकना भी आरंभ हो जाता है। विरोध तब स्वयं को प्रकट करता है, जब ये "मैं" बर्तनों का आकार बढ़ने के बाद भी, बर्तनों में समा नहीं पाता, बाहर छलकने लगता है, विस्तार पाने लगता है।         विडंबना ही है कि हर "तुम" को लगता है, वो "मैं" को उससे बेहतर जनता है। यह "तुम" के द्वारा "मैं" का व्यक्तित्व निर्धारण कैसे संभव है! मेरे भीतर जितना भी "मैं" था उसे तो मैं अपने ही पैरों से कुचलती आई हूं, अब जो है वो तो सिर्फ एक ज़िद है, जो हार नहीं सकती, क्योंकि जीने के क्रम में उसने खिलौने के बर्तन में पकने वाली, प्रेम-कविताओं पर सिकने वाली, पुराने गानों में घुलने वाली कितनी ही कल्पनाओं की हत्या की है। अब उसके पास हरने का विकल्प नहीं रहा।  अपने "मैं" को उसने स्वयं ही दो हिस्से में फाड़ दिया है और उसके ही दोनों हिस्से जाहिल कुत्तों से एक दूसरे को नोचते रहते हैं।         अपनी ही प्रकृति से आखिरी क्षण तक लड़ते हुए जीना और अपने ...

राधिकाराधितम् ...

       बहुत आगे-पीछे विचार कर उसने ठिठकते शब्दों से कहा, "एगो धागा गले में डाल लीजिए, सुहागिन का गला सूना, हाथ खाली, ठीक नहीं लगता है", मैं इन प्रश्नों की आदि... मुस्कुरा उठी। अनायास ही मेरे मुंह से निकला...  "जो सब श्रृंगार करती हैं, उनका सब ठीक चलता है?" वो कुछ नहीं बोली, आंखें उदास हो गई, हाथ चलते रहे। कुछ देर ठहर कर उसने कहा... "ठीकै बोल रही हैं, हई सब तो भुलाने के लिए है। हमार त बैलगाड़ी भगवान एकै पहिया क दिए, हमको अकेले खींचना है। "        मेरे सामने जाने कितनी एक पहिए की बैलगाड़ियां घूम गईं। दूसरा पहिया कहीं अवसाद में दिखा तो कहीं उन्माद में, कहीं हीनता में दिखा तो कहीं ठसक में, कहीं अज्ञानता में दिखा तो कहीं पूर्ण ज्ञान से युक्त। लाख देखने सोचने पर भी ठीक वैसा साथ नहीं दिखा दो पहियों में जैसे कि अपेक्षा सरल सुंदर कल्पनाओं में होती है। चलो साथ न सही, तालमेल ही सही, उचित सामंजस्य ही सही। इतना दुर्लभ क्यों हो गया 'प्रेम' के ठीक अर्थ में प्रेम देना, 'साथ' के ठीक अर्थ में साथ देना, उत्तर-प्रत्युत्तर के दुष्चक्र से मुक्त ...

अब मैं नास्तिक नहीं, वो पहले की बात थी।

           अब मैं नास्तिक नहीं, वो तो पहले की बात थी, जब मुझे पता था दो और दो चार होते हैं, गेंद ऊपर से नीचे गिरती है, बरसात के बाद ठंड आती है, जीवन और मृत्यु जैविक प्रक्रिया है, और तुम्हारा मिलना दुनिया की सबसे सुंदर घटना होगी।         अब मुझे पता नहीं..बरसात के बाद क्या होना है... अब गेंद हवा में कुछ देर टंगी भी रहे तो क्या, दो और दो कुछ होते भी हैं या नहीं! इस वृहत् शून्य में शब्द का निनाद, रस, गंध, रूप, स्पर्श... जीवन ही तो फूट पड़ता है शून्य से। मृत्यु है ही कहां ! और तुम .... सचमुच मिल गए हो क्या !!       अब जहां देखूं चमत्कार ही नजर आता है। एक क्षण के बाद दूसरे क्षण का घटना एक चमत्कार ही तो है। बारीक से अदृश्य धागे पर नट का सा संतुलन बनाए संसार का घटते रहना, बार बार ... लगातार.. आश्चर्य ही तो है! जीवन, तिस पर मेरा जीवन, मेरे जीवन में तुम... कैसा दुर्लभ संयोग ! इस संयोग पर मेरा अधिकार कितना क्षीण, मेरा अहंकार कितना विशाल ! इस अहंकार का टूटना कितना अनिवार्य है तुम तक पहुंचने के लिए!      ...