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अब मैं नास्तिक नहीं, वो पहले की बात थी।

           अब मैं नास्तिक नहीं, वो तो पहले की बात थी, जब मुझे पता था दो और दो चार होते हैं, गेंद ऊपर से नीचे गिरती है, बरसात के बाद ठंड आती है, जीवन और मृत्यु जैविक प्रक्रिया है, और तुम्हारा मिलना दुनिया की सबसे सुंदर घटना होगी।         अब मुझे पता नहीं..बरसात के बाद क्या होना है... अब गेंद हवा में कुछ देर टंगी भी रहे तो क्या, दो और दो कुछ होते भी हैं या नहीं! इस वृहत् शून्य में शब्द का निनाद, रस, गंध, रूप, स्पर्श... जीवन ही तो फूट पड़ता है शून्य से। मृत्यु है ही कहां ! और तुम .... सचमुच मिल गए हो क्या !!       अब जहां देखूं चमत्कार ही नजर आता है। एक क्षण के बाद दूसरे क्षण का घटना एक चमत्कार ही तो है। बारीक से अदृश्य धागे पर नट का सा संतुलन बनाए संसार का घटते रहना, बार बार ... लगातार.. आश्चर्य ही तो है! जीवन, तिस पर मेरा जीवन, मेरे जीवन में तुम... कैसा दुर्लभ संयोग ! इस संयोग पर मेरा अधिकार कितना क्षीण, मेरा अहंकार कितना विशाल ! इस अहंकार का टूटना कितना अनिवार्य है तुम तक पहुंचने के लिए!      ...

सब प्लास्टिक में तब्दील हो गया...

 एक कदम पीछे, फिर और एक, फिर और एक, जिंदगी के थपेड़ों से सहम कर, एक एक कदम पीछे लेती जा रही हूं। हर बार जब एक कांच का बर्तन फूटा, मैंने प्लास्टिक से बदल दिया। कुछ सालों के फेर में सब प्लास्टिक में तब्दील हो गया। जो सबसे ज्यादा नापसंद था, वही रोजमर्रा का जीवन बनता जा रहा है। अब भीतर बाहर सब प्लास्टिक है। न कुछ फूटता है, न कोई खनक है। अब कुछ नहीं बदलता। सालों साल की उदासीनता अपने में समेटे किफायती जीवन चल रहा है।         खीझ में उठाकर पटक भी दूं, तो होता कुछ नहीं, वही खीझ फिर उठा कर दीवार पर सजाने के अलावा विकल्प क्या है !            ये हटा दो न प्लास्टिक सब, मुझे वही कांच दे दो, या संभाल लूंगी या फूट जाऊंगी, मगर प्लास्टिक के साथ नहीं जी पाऊंगी। ये मैं नहीं हूं, मुझे इसमें घुटन होती है।          

एक और जन्मदिन...

      उम्र सीढियां उतरने लगी है, उसी घाट की ओर जहां चढ़ना उतरना लगा रहता है। अब घाट किनारे लोग कम हैं, भीड़ ज्यादा है। वहां गंगा नदी है जहां पहले गंगाजी होती थीं। महक तो है, खुशबू मगर चुप हो गई है। दिए अब ज्यादा जलते हैं, दिखाई कुछ नहीं पड़ता। वहीं से थोड़ा आगे कुछ नहीं है।         मगर इस घाट से उस कुछ नहीं तक ये जो छोटी सी दूरी है, ज़रा घटती नहीं है। वही एक लंबी डुबकी मैं आधे मन से ले रही हूं, वही उद्दाम सीढ़ी मैं फिर से चढ़ रही हूं।  

वक्त का दरवाज़ा.. खोल सकते हो??

 एक वक्त के बाद, सपने मुश्किल से ही आते हैं आंखों में। नींद का रास्ता देखती आंखों में, बार-बार पलट कर आता रहता है वो वक्त जो गुजर सकता था, अगर सब वैसा ही होता, जैसा होना चाहिए था... मगर जो हुआ नहीं, जो कहा नहीं, जो किया नहीं, जो घटा नहीं...        और जो घट रहा है... वो किसी बही खाते में दर्ज हो रहा है, जिसका हिसाब होगा किसी दिन, जब वो गुजर जाएगा वक्त के दरवाजे की चौखट लांघ कर।       क्या तुम खोल सकते हो वक्त का दरवाजा?? 

मैंने नाम भी उतार दिया...

       वहां कोई मंदिर नहीं था। मेरे अहंकार से बहुत ऊंचे पेड़ थे, जिनपर अनगिनत पक्षी वृन्द का बसेरा था, उनकी बहुत सारी बातें थी और थी बहुत गहरी चुप। इस पाती से उस पाती कुछ समझाते हुए बड़े आवेश से जातीं, फिर सामने बैठकर जैसे पूछती हों, कि मेरे पल्ले कितना पड़ा! मैं उनकी जोर से धड़कती हुई नन्ही काया की ओर देखती, उन्हें सांस लेने को समय नहीं था, उन्हें कुछ पता था जो मुझे बताना चाहती थीं। वो मुझे और गहरे लेकर गईं और वहां से एकाएक इशारा किया सड़क के दूसरी ओर बिछे पहाड़ों की ओर, मैं अपना बौनापन लिए वहीं पत्थरों पर रुक गई। एक दूसरी चिड़िया मेरे ठीक बगल से ऊपर को भागी, और काले बादलों में खो गई। बिजली एक बार पूरे जोर से कड़की, आंखें अपने आप ही बरसने लगीं। मैं चप्पल उतार कर आगे बढ़ी, तुम नहीं मिले। मैंने नाम भी उतार दिया। दर्द जो पालती आई थी, वो भी एक ओर रख दिए, उम्मीद छोड़ दी, मुझे कुछ हलचल सी महसूस हुई। यूं लगा तुम वहीं किसी ओट से मुझे देख तो रहे हो, सामने नहीं आते।मैं कुछ देर रुकी, फिर ज़िद भी उतार कर वहीं आंखें बंद किए बैठ गई। देर तक तुम्हें खुद को देखते महसूस करती रही। सचम...

पुरानी दीवार पर लटका एक बल्ब बल्ब...

 सफेदी खो चुकी एक पुरानी दीवार पर एक मद्धम सा बल्ब लटका था। उसके इर्द गिर्द तीन पतंगे अपनी मस्ती में मंडरा रहे थे। एक छिपकली काफी देर से घात लगाए बैठी थी। एक सरसराहट से उस ओर बढ़ी, फिर जाने क्या सोच कर रुक गई। पहले पतंगे का ध्यान उसकी ओर गया, वह चिल्लाया, "अरे भागो यहां से, वह देखो छिपकली आ रही है"। दूसरे पतंगे ने उस ओर देखा, फिर  भवें तान कर बोला- "हुंह ! हम क्यों भागें? हम यहां पहले से थे। रोशनी पर क्या सिर्फ छिपकली का अधिकार है, हमारा नहीं? कब तक इस तरह डर के जिएंगे। "         पहला पतंगा उसकी बात से कुछ परेशान हुआ- " भाई, तुम क्या बेकार की बात कर रहे हो। हम आखिर क्या कर लेंगे! जहां जीतने की संभावना नहीं, वहां व्यर्थ में जान गवाने का क्या लाभ। हम कहीं और रोशनी ढूंढ लेंगे, अभी चलो यहां से।"         दूसरा पतंगा अब तैश में आ गया- " तुम्हारे जैसे कायरों की वजह से, हमारी यह हालत है, पंख होते हुए भी हम एक रेंगने वाले जीव से डर कर भागने को मजबूर हैं। शर्म आनी चाहिए तुम्हें। मैं अब यह सब नहीं सह सकता। किसी न किसी को तो आवाज उठानी होगी। मैं कहीं...

मुझे पहेली होना अच्छा लगा

  बहुत थक जाने पर नींद भी नहीं आती अक्सर। बहुत उदास होने पर रोया भी नही जाता। चोट ज्यादा हो तो दर्द भी महसूस नहीं होता। बहुत बातें हों मन में तो कहा नहीं जाता कुछ।  मैं चुप ही रही। सालों साल... बस चुप। एक हल्की मुस्कान पहन कर जीती चली गई। किसी को कुछ पता नहीं चला। तुम्हें भी नहीं। मैंने चुप के ऊपर बिंदी सजा ली, चूड़ियां डाल ली, झुमके लटका लिए। चुप सुंदर लगने लगा। लाली में सजी मुस्कान के भीतर एक रहस्य का सा आभास प्रतीत होने लगा। मैं पहेली हो गई। मुझे पहेली होना अच्छा लगा...      .... ये कुछ पुनरोक्ति जैसा लग रहा है, ऐसा कुछ पहले लिख चुकी हूं शायद... मैं रुक गई। लिखना अवरुद्ध हो गया। अब मेरी दृष्टि दाहिने पैर के पंजे पर स्थिर हो गई थी जिसकी नसों में सुबह से असहनीय दर्द था। खिड़की से हर तरह का शोर अंदर आ रहा था। चुनाव का माहौल था। बाहर कुछ अंतराल पर बहुत से बातें बेचने वाले फेरी लगा रहे थे। उनकी हांकों से मन ऊब चुका था। गर्म मौसम की ताप मन को खुश्क कर रही थी। मुझे आगे कुछ लिखने की इच्छा नहीं हुई।         बीते कल की थकान अभी तक पलकों पर लदी ...