मेरे घर कोई पिंजरा तो नहीं, थोड़ी छाँव है

           वो डरी हुई थी। मेरा मन नहीं हुआ उससे और कुछ पूछूं। वैसे भी, वो क्या बता देती जो मुझे पहले से पता नहीं था। वो जानना चाहती थी मैं कैसे जी लेती हूँ ? क्या मैं सचमुच खुश हूँ? मुझे क्या कहना चाहिए था ! हालाँकि ये भी सच है कि  मैं उतनी खुश नहीं जितनी फेसबुक पर नज़र आती हूँ , लेकिन ऐसा कुछ त्रास भी नहीं सह रही हूँ जो "अकेली औरत " की अवधारणा के साथ जुड़ा है।  "हर आदमी तुम्हे नोचने दौड़ेगा "(नोचने के स्थान पर सभ्य समाज के पति एक अन्य , अधिक प्रचलित मिलते जुलते शब्द का प्रयोग करते हैं) की धमकी से डरी  हुई तो मैं भी थी। लेकिन ऐसा कुछ अनुभव में नहीं आया कि घूरने या फब्तियां कसने वालों कि संख्या में कोई अप्रत्याशित इजाफा हुआ हो। अकेलापन थोड़ा उदास कर देता है लेकिन "खाने को नहीं दौड़ता " , और थोड़ी उदासी बेहतर है।
         खैर छोड़ो , ये क्या लेकर बैठ गई।  आज तो आधा दिन इसी विश्लेषण में बीता कि 'डैनी' की नियति क्या मारा जाना ही हो सकती थी ? क्या मज़बूत इच्छाशक्ति की महिलाओं को नकारात्मकता की और धकेल देना साहित्यिक बाध्यता है ! महत्वकांक्षा औरत में एक सिर्फ सनक के रूप में ही दिखाई जा सकती है ? अरे ! तुम तो शायद 'गेम ऑफ़ थ्रोन्स ' नहीं देखते ! अश्लीलता दिखाई गयी है उसमे !! हंसी भी आती है मुझे ! पोर्न तो देखते हो ! जाने दो , इसमें नहीं उलझते , ये बताओ "औरत के पांव घर से बाहर निकल गए तो वो परिवार नहीं संभाल सकती , उसके दिमाग में गर्मी चढ़ जाती है , अपनी जगह भूल जाती है " ये तो सुना होगा ! बोलो न ! जो ये बातें कहते हैं वो किस गर्मी से ग्रसित होते हैं ! 
           तुम नहीं बोलोगे , तुम तो सुनते भी नहीं। 

जानते हो ! जब कमरे में हलकी सी रोधनी इधर उधर छिटक के 4 -5  तकियों से खालीपन को ढक कर आधी मुंदी आँखों में बेमतलब की नमी लिए ग़ज़ल सुनती हूं, अक्सर एक हाथ की उँगलियों से दूसरे हाथ की हथेली को महसूस करती हूं , अपनी ही उँगलियों में उँगलियाँ उलझाती हुई एक एहसास को अपने बगल में लेटा  हुआ पाती हूं , मेरी आँखों में आँखें डालकर पूछता है, 'प्यार काफ़ी  क्यों नहीं होता ?' मेरे भीतर कुछ जड़ से उखड़ता हुआ सा लगता है , कह दूं  !! "काफी है " लेकिन शब्द उतर आते हैं आँखों में , 'आवारा , ज्यादा पढ़ लिख गयी हो !दिमाग ख़राब हो गया है ! कपडे पहनने का सलीका नहीं है ! तुम्हारी मर्यादा ! तुम्हारा कर्त्तव्य ! तुम्हारी मनमानी ! तुम्हारा फेसबुक ! तुम्हारा स्टेटस ! किससे मिलने गई थी ! ऑफिस में इतनी देर लगती है ! ऐसा क्या काम है जो "मिल" के ही हो सकता है ! तुमको तो घर से बाहर निकलने का बहाना चाहिए ! 
             
          नहीं ! प्यार काफ़ी नहीं है ! प्यार की सम्भावना इन शब्दों के बीच एक मजबूर पंछी सी फफड़फड़ती टकराती चोटिल होती जाती है ! तुम डरते हो, कभी भूल से पिंजरा खुला न रह जाए , तुम चौकीदारी में दिन गंवाने लगते हो,  तुम्हारी मानसिकता उसे कैदी बना देती है।  उसकी जिजीविषा तुमसे मुक्ति के लिए संघर्ष करने लगती है।  कभी न कभी उसे मुक्त होना ही है !

            मेरे घर कोई पिंजरा तो नहीं , थोड़ी छाँव है, मैं यूं  ही पानी-दाना बरामदे में रख दिया करती हूं। जिजीविषा के मारे पंछी अपनी अपनी कैद से छूट मेरे पास आया करते हैं। उन्हें देखना सुखद है। दाना-पानी रखना सुखद है। ग़ज़लें सुनना सुखद है। नेटफ्लिक्स देखते हुए आलस में पड़े रहना सुखद है।  कांच की शीशियों को रंगना सुखद है। उनमें मनीप्लान्ट लगाना सुखद है। बेकार ही तुमसे पूछा , मैंने ठीक ही तो कहा था उससे , 

                                    "मैं मज़े से जी रही हूं , अकेले रहना सुखद है। "

         
       
       


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