जहाँ ये जा रहे हैं न ! वहां अब कोई भगवान् नहीं रहता !

एक राजकुमार था, बहुत सुन्दर ! थोड़ा खोया खोया सा रहता था।  उसे कई सारी बातें समझ में नहीं आती थी।  जैसे लोग खुश क्यों नहीं रह पाते ? जैसे झुर्रियों वाला बुढ़ापा सबकी नियति क्यों है ? जो मिलता है वो खो क्यों जाता है ? चोट क्यों लगती है ? दर्द क्यों होता है ? लोग मूर्तियों के आगे कीर्तन करते हैं, फूल चढ़ाते हैं , कभी - कभी किसी स्वस्थ जानवर की बलि भी चढ़ा डालते हैं ! उन्हें लगता है इससे दुःख दूर हो जाएगा , लेकिन घर पहुंचते पहुंचते ही कोई नया दुःख फिर उन्हें घेर लेता है। उसने सोचा वो इसका हल ढूढ़ेगा ! ये मूर्तियां , मंदिर, कीर्तन , क्या बचकानी बातें हैं !  वो ठोस समाधान चाहता था ! उस समाधान की खोज में निकल गया।  लोग कहते हैं सफल भी हुआ था ! लोगों के पास लौट कर आया भी, कि इनको भी बता दूं , इनका भी दुःख दूर हो जाए !

           पता नहीं उसने क्या कहा , पता नहीं लोगों ने क्या सुना ! लेकिन भीड़ इकट्ठी ज़रूर हुई ! भीड़ ने उसकी मूर्तियां बना डालीं , मंदिर गढ़ लिए, कीर्तन करने लगी उसी के आगे , प्रसाद बांटें ! उसे जानवरों का मारा जाना बुरा मालूम होता था ! उसे पूजने वाली भीड़ ने इंसानों तक को क़त्ल किया।  वो कहता रहा जीवन क्षणिक है और शरीर नश्वर ! भीड़ ने उसके जाने के बाद उसके 'दॉंत ' तक के लिए युद्ध छेड़े। उसे आत्मा या उसकी अमरता कोरी कल्पना लगती थी, भीड़ ने उसे ही ' अवतार ' घोषित कर दिया! उसके शब्दों पर नोच - खसोट आज तक जारी है।  

            सोचती हूं  उसने ये बातें न भी कहीं होती लोगों से तो क्या होता ? वो मासूम था , समझ नहीं पाया ! भीड़ के कान नहीं होते , आँख नहीं होती, चेतना भी नहीं होती ! भीड़ दीमक की तरह होती है ! जिस पर आसक्त हो गयी... 

         तुम सुन भी रहे हो जो मैं कह रही हूं? क्या देखते रहते हो रहते हो सारा दिन टीवी पर !! ओह्ह ! कुछ भक्तों की भीड़ फिर चली है , एक और भगवान् का भला करने ! 

        एक बात बताऊं! मुझे एक दोस्त* ने बताया था , जहाँ ये जा रहे हैं न ! वहां अब कोई भगवान् नहीं रहता!



* जर्मन दार्शनिक नीत्शे।   

   

Comments

Popular posts from this blog

कहानी....सच... और चाँद का बौना पेड़

व्यक्ति को परिभाषाओं में बांधना छोड़ दो !

पुरानी दीवार पर लटका एक बल्ब बल्ब...