'हैरी पॉटर ' वाली नोटबुक का 'बुद्धिजीविता ' से कोई आवश्यक विरोध नहीं है
तुम्हें याद है ? ये कविता पढ़ी थी हमने बचपन में, 'भारत भूषण अग्रवाल' की, "मैं और मेरा पिट्ठू ", और मैंने तभी कहा था तुमसे , ये पिट्ठू बड़ा परेशान करेगा मुझे ! तुम समझे ही नहीं थे, तुम्हें लगा था मैं समय के साथ एक निश्चित ठोस व्यक्तित्व में विकसित हो जाउंगी। बोलो हुआ क्या वैसा ? बताओ अब क्या करूँ !
'स्प्लिट पर्सनालिटी ' ? मुझे नहीं लगता। मुझे लगता है ऐसा स्वीकार कर लेना सरलीकरण होगा ! मुझे लगता है जब व्यक्ति जटिलताओं में सामंजस्य बिठाने के क्रम में उस स्तर को प्राप्त कर लेता है जिसे तुम "मैच्योरिटी " कहते हो, तब एकाएक अगर बहुत सरल सी कोई भावना उससे टकरा जाए तो वो अचकचा जाता है ! समझ नहीं पाता उसे। भौंचक रह जाता है। शायद क्योंकि एक उम्र के बाद आम के पेड़ों पर लड्डू नहीं फल सकते , सिक्के बो कर पौधे निकलने का इंतज़ार नहीं होता और न ही बादलों से एक बुढ़िया हाथ में हथौड़ी लिए नीचे झांकती है। एक उम्र के बाद टॉम और जेरी में किसी प्रकार की मित्रता की सम्भावना नहीं रह जाती, उनकी खींचा-तानी का हास्य गुदगुदा नहीं पाता। एक उम्र के बाद टॉम का जेरी को मार कर खा जाना ही तार्किक बाध्यता हो जाती है , शेष जो भी है वो बचकाना है। एक उम्र के बाद बचपना, जवानी, प्रौढ़ बुद्धिजीविता एक दूसरे पर टांग पसारे , दांत फाड़े पड़ी नहीं रह सकती। उन्हें अलग-अलग खानों में ठूंस दिया जाता है। इनमे किसी तरह की मिलावट तुम्हारी नज़र में 'डिसऑर्डर ' है, एक तरह की विक्षिप्तता।
जानते हो मुझे क्या लगता है ? मुझे लगता है उम्र को खानों में बाँट देना विक्षिप्तता है। मुझे लगता है 'मिक्की माऊस वाले चड्ढे' और 'हैरी पॉटर ' वाली नोटबुक का 'बुद्धिजीविता ' से कोई आवश्यक विरोध नहीं है, न ही हरी कांच की चूड़ियों का नारीवाद से कोई आवश्यक विरोध है। खूब प्यार करते हुए भी अपनी तरह जिया जा सकता है। कामू की किताब आधी छोड़कर गिलहरी का पीछा किया जा सकता है। मुझे नहीं लगता 'निश्चित ठोस व्यक्तित्व ' कोई सद्गुण है.... मुझे लगता है मेरी तरलता में ज्यादा संभावनाएं है।
बढ़िया लगता है.. काश! जैसा लगता है, वैसा ही हो।
ReplyDeleteवाह!वाह! मानवीय व्यक्तित्व को देखने का नया आयाम।साधुवाद ऐसी दृष्टिकोण प्रेक्षित करने के लिए
ReplyDeleteDhanyawad
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