खरगोश जाना पहचाना सा लगा...

 तुम्हें वो कहानी याद है ! खरगोश और कछुए की कहानी... जिसमें कछुआ दौड़ जीत गया था.. तब कछुए की जीत कैसा रोमांच पैदा करती थी, उसका जज़्बा हिम्मत बांधने वाला था, उसका आत्म-विश्वास मुग्ध करता था... कैसे एक कछुआ खरगोश को दौड़ की चुनौती दे सकता है भला... सोचो तो .. कितना स्वाभिमान, कितना धैर्य.. और आखिरकार जीत। अदभुत ! 

       तुम्हें कभी ऐसा लगा ! कि अगर कहानी में खरगोश जीत जाता तो उस कहानी का क्या बनता ?  मुझे लगा ... 

     खरगोश का जीतना कहानी नहीं बनती। क्योंकि खरगोश की जीत तो स्वाभाविक थी। एक प्राकृतिक तथ्य। तो फिर कछुए ने किस बूते खरगोश को चुनौती दी होगी ! मेरी दिनचर्या की हड़बड़ाहट को पीछे धकेल इस विचार ने मुझे घेर लिया। मैं ठहर गई। गूगल पर तफरी की तो पाया, इस कहानी के अलग-अलग रूप मजूद हैं। कहीं कछुए ने आगे बढ़कर चुनौती दी, तो कहीं खरगोश की चुनौती को स्वीकार भर किया। मगर दोनों ही परिस्थितियों में कछुआ सारे जंगल के सामने खरगोश का घमंड तोड़ने के उद्देश्य से एक असंभव का दावा कर आगे बढ़ा था। सारे जंगल की और मेरी तुम्हारी सहानुभूति कछुए के साथ ही थी... एक तार्किक असंभावना के साथ। क्योंकि मैं, तुम और ये सारा जंगल अपनी प्राकृतिक और पारिस्थितिक दुर्बलताओं को नकार कर दौड़ जीतने को उतावले हैं, हमें कछुए की जीत में अपनी जीत नजर आती है। हमारा बस चले तो दौड़ में कछुआ ही क्यों मछलियां और पंक्षी भी दौड़ें और जीतें ...

        मैं सोचती जा रही थी...   दौड़ शुरू होने के साथ ही जनभावना स्पष्ट थी। कछुए ने अपनी परिपक्वता एक और रख दी और आगे बढ़ चला। खरगोश कछुए की जिद पर हंसता, ठहाके लगता। तुम्हें नहीं लगता ! तटस्थ होकर सोचो तो बात हास्यास्पद ही थी। अब खरगोश मुझे ज्यादा सरल, स्वाभाविक और पारदर्शी लगने लगा। उसका बर्ताव, उसका घमंड में समझ पा रही थी। कछुआ जिस रास्ते चल दिया वो कुछ अप्राकृतिक... कुछ अटपटा सा लगा। उसकी हठ धर्मिता से ऐसा लगा जैसे उसे पता था उसकी जीत तय है... जैसे ये सारी पटकथा रची गई एक आदर्श प्रस्तुत करने के उद्देश्य से... सब योजनाबद्ध ढंग से घटा। वरना तुम्ही बताओ, दौड़ के बीच खारगोश का सोना क्या किसी तरह हजम होता है।   

 ! दौड़ खतम करके सोने में उसे क्या ही समय लगता !!

    सारे मामले से मुझे किसी गहरी राजनीति की बू आने लगी...  मेरी तुम्हारी सारी सहज प्राकृतिक प्रवृत्तियां खरगोश सी भौंचक कटघरे में खड़ी नज़र आईं और सारे आदर्शवादी असंभव प्रतीत होने वाले आडंबर कछुए से गर्व में फूलते दिखे। 

        वृत्तियों को समेट कर संसार की ओर से आंख बंद किए हुए, काल्पनिक आदर्श की खोल में रहकर भवसागर के थपेड़ों से बच के निकला जा सकता है... हां, सच है। मगर ऐसा खूब लंबा जीवन जो जिया ही नहीं गया... किस काम आया। भवसागर में पड़े भी और रूप, रस, गंध, स्पर्श कुछ जाना भी नहीं... संवेदनाओं पर खोल चढ़ाए पत्थर बने रहे!  सागर में उतरे नहीं, लहरों से भीगे नहीं, हंसे नहीं, रोए नहीं, काला सफेद सलेटी कुछ नही चढ़ा आत्मा पर , तो यहां आना ... आविर्भाव... तिरोभाव ... सब जाया ही गया! 

               खरगोश हक्का-बक्का सा बैठा है अंधेरी शकल लिए, कछुए के इर्द-गिर्द मेला लगा है, कछुआ भीड़ का नया चेहरा है, खरगोश भीड़ की हर इकाई का सच।

Comments

  1. सच उजागर करता आलेख। अच्छा लगा, बधाई।

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  2. एक नए दृष्टिकोण को रखता सार्थक आलेख ।

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    1. प्रतिक्रिया पाकर अच्छा लगा 😌

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  3. क्या सलीका है शब्दों की उधेड़बुन का , उनके नएपन का.. अद्भुत..! भावों में गहराई है तो शब्दों में आतुरता , कथानक पुराना है तो प्रदर्शन नया .. पर्दे पर चंचल मन है तो पीछे तफरी करती एक अनुभव ओढ़े समझदारी ... वाकई आज लगा कुछ अधूरा होकर पूरा कैसे हुआ जाता है..!! 🙂✌️

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    1. ☺️ खुश खुश महसूस हुआ प्रतिक्रिया पढ़कर ।

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