बीत जाना अभी शेष है...
.... नहीं ... कुछ नहीं ... बस ऐसे ही ... मुझे तो याद भी नहीं क्या कह रही थी! ये याद है कि कुछ था जो कह देना बहुत जरूरी था... मगर क्या? किससे? ये सब याद नहीं। बार- बार फोन उठाती हूं, कांटेक्ट लिस्ट स्क्रोल करती हूं... फिर फोन वापस रख देती हूं। बात किसी की ओर मुखातिब नहीं । बस बात थी। मुझे ठीक ठीक पता नहीं मुझे क्या कहना है, मगर एक बात मन में अटकी पड़ी है... एक पूरी बात भी नहीं ... कहने का कोई संदर्भ भी नहीं है! शायद ये कि__ मेरी यात्रा बेहद थकान भरी रही ।
मुझे एहसास था कि व्यक्ति का जीवन, उसकी चेतना पर, उसके व्यक्तित्व पर, उसकी हथेलियों पर अपना निशान छोड़ता है। आज अपनी हथेलियों को गौर से देखते हुए लगा जैसे ये मैं नहीं। जैसे मैंने किसी अजनबी का जीवन पहन लिया है ! ये व्यक्तित्व ... ये 33-34 वर्ष की महिला .... जिसकी कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं ! जिसकी उँगलियों पर स्याही के निशान की जगह चाकू के छोटे-छोटे-छोटे-छोटे सैकड़ों कट्स... जिनपर सब्जियों की छिलकों की कालिख भीतर तक समा गई है, किताबों के पन्नों की शांत स्थिर भीनी सुगंध की जगह जिसका मन छिछली शिकायतों की सड़न , हड़बड़ाहट और क्रोध से भरा है... जिसे कुछ अच्छा या बुरा नहीं लगता, सब "ठीक ही" लगने लगा है... ये अशांत, उदास और म्लान चेतना ! क्या ये मेरी है ? हूँ कौन मैं?
उफ्फ.. पानी उबलने लगा था.. मैं उसे घूरती जा रही थी। मुझे बस हल्का गुनगुना पानी चाहिए था पीने के लिए। कुछ देर खौलते पानी को देखते रहने के बाद मैने सारा पानी सिंक में फेक दिया। दोबारा गुनगुना पानी लेकर सोफे पर आधी लुड़क गई। ये खिड़की मुझे पसंद है। यहां ठीक इसी तरह बैठे हुए ऐसा लगता है धूप ने मुझे अपनी गोद में ले लिया है। मैं कुछ देर यहां ऐसे ही पड़ी रह सकती हूं। मैंने थोड़ा सा पढ़ कर मानव सर की अंतिमा इसी खिड़की पर रखी थी। उसे फिर उठा लिया। मानव सर अपनी दुनिया में आपको खींच लेते हैं। मैं पवन-दुष्यंत की मनःस्थिति में डूबती चली गई। मेरी सांस की लय अब सामान्य थी। कोई हड़बड़ाहट, क्रोध, उदासी... कुछ नहीं!
ऐसा कितनी बार होता है ! जब आप अपने भीतर और बाहर घट रहे परिवर्तनों को इतने क़रीब से देख पाते हैं । जीवन आपके ठीक सामने होता है । आपके अस्तित्व से बेपरवाह । उसकी महती योजना में अपनी लघुता को इतने स्पष्ट रूप से जान लेने के बाद किसी भी एक विचारधारा को पूरी तरह कैसे स्वीकार किया जा सकता है। जिस क्षण एक को स्वीकार लिया जाता है, उसी क्षण क्या बाकी सब निषेधित नहीं हो जाता! मैं कृष्ण के प्रेम में हूं, तो क्या ईसा की करुणा नकार दूं? मेरे अकेलेपन के साथी कामू हैं, तो क्या दिनकर की रश्मिरथी मेरे संघर्ष का निनाद नहीं हो सकती !
उम्मीद और इंतजार की खींचातानी के बीच मेरा बीत जाना, अभी घटा नहीं है। यात्रा अभी शेष है। कहानी के कुछ पन्ने बाकी हैं, कलम मेरे हाथ में है... अंत बदला भी तो जा सकता है।
Hi ma'am.Laga AAP meri hi kahani likh rahi hai main hi kya mujhe lagta hai har koi isse relate kar sakta hai
ReplyDeletethankyou
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